Friday 20 March 2015

मंज़िलें नज़दीक है…

सफर शुरू हुआ है मगर मंज़िलें नज़दीक है…
ज़िंदगी जब जंगलोके बीच से गुजरे,
कही किसी शेर की आहट सुनाई दे,
जब रात हो घुप्प ,चाँद छिप पड़े,
तब समझ लेना मुसाफिर मंज़िलें नज़दीक है..
जब सावन की बदली तुम्हारी ज़िंदगी ढक ले,
पड़ने लगे बूंदे रात में हौले हौले,
हो मूसलाधार जब बरस पड़े ओले,
तब समझ लेना मुसाफिर मंज़िले नज़दीक है..

.
हो घना कुहरा के आँखे देख न पाये,
जब पड़े पाला ,रात में स्वान चिल्लाएं,
अचानक तीव्र तीखी जब हवा चलने लगे,
तब समझ लेना मुसाफिर मंज़िले नज़दीक हैं..
जब कड़कती धूप में चेतनता जाने लगे,
आश्मान से जब दिवाकर आग बरसाने लगे,
फ़ट पड़े धरती अचानक जब प्रलय के काल से,
तब समझ लेना मुसाफिर मंज़िले नज़दीक हैं..
यदि मुसाफिर इन दशाओं में तेरी शक्ति रहे,
तू सदा जगता रहे,चलता रहे,
आप पर विश्वास लेकर शंख की उन्नाद से,
तब समझ लेना मुसाफिर मंज़िले नज़दीक हैं..

   ...atr

No comments:

Post a Comment

|| गुमनाम पत्र ||

|| गुमनाम पत्र || (स्नातक के समय लिखा हुआ अपूर्ण , परित्यक्त ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास का एक अंश ) -अभिषेक त्रिपाठी माघ महीने के दो...