Wednesday 23 May 2018

|| गुमनाम पत्र ||

|| गुमनाम पत्र ||
(स्नातक के समय लिखा हुआ अपूर्ण , परित्यक्त ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास का एक अंश )
-अभिषेक त्रिपाठी
माघ महीने के दोपहर की गुनगुनी धूप। एटलस साईकल की पैडल मारता हुआ रग्घू डाकिया तेजी से प्रताप बाबा के गांव वाले खड़ंजे पर भागा जा रहा था। गांव के पश्चिमी छोर पर पड़ने वाले सरकारी नलकूप से अपने गन्ने की फसल की सिंचाई कर रहे प्रताप बाबा ने तेज आवाज में बुलाते हुए कहा-
अरे रग्घू! इतनी जल्दी में कहां भागे जा रहे, आओ थोड़ा धूप ले लो। इतने दिन बाद तो सूरज देवता उगे हैं। किसकी चिट्ठी पहुँचानी है गांव में ?
'बहुत चिट्ठी है बाबा, मनीआर्डर भी तो आया है, महीना जो पूरा हुआ है।'
तेजी से ब्रेक लगाकर रुकते हुए रग्घू बोला।
'काशी से हमारे नाती की कौनो खबर नही आई ?
बोला था परिणाम आते ही संदेशा भेजेगा।'
बाबा ने यूँ ही बात बढ़ाते हुए कहा।
' बाबा तुम न जंगल हो , फंसा ही लेते हो। अब गन्ना चुह के जाऊंगा ।' हंसते हुए रग्घू बोला।
कुछ 10-15 मिनट के आराम और गांव के सबसे प्रतिष्ठित व्यक्ति से गुफ्तगू के बाद रग्घू ने फिर साईकल उठाई और गांव की ओर निकल पड़ा।
सबको चिट्ठी, मनीआर्डर देने के बाद जब रग्घू ने अपने झोले में अंतिम पत्र के लिए हाथ डाला
.... और उस पर लिखा हुआ पता पढा तो उसे यकीन ही नही हुआ। ये अंतिम पत्र तो उसके लिए ही था। उसके पते पर, उसके नाम से। लेकिन उसका तो कोई अपना नही था, कोई दूर का रिश्तेदार भी नही।
फिर ये चिट्ठी किसने भेजी है उसे।
वह उसे खोलने ही वाला था कि सामने से आती हुई आशीष की माँ ने उससे पूछा
'पता नहीं इस बार भी आशीषवा का आईयस नही हुआ का? पता नहीं कब आएगा वो घर, कब तक इलाहबाद में ही रहेगा, उसकी पत्नी को देखो अब तो बोलना भी भूल गयी है। न तो वो कलेक्टर बनने की कौनो खबर भेज रहा है और न ही घर आ रहा है। '
'अरे नही अम्मा आशीष बेटवा जरूर कलेक्टर बन के आये।
और तुहे सबका अपने साथ कोठी में लेकर रहे। कुछ दिन और सब्र करा।' - रग्घू ने बुढ़िया मां को ढांढस बंधाते हुए कहा।
उस मां और पत्नी की वियोगी आंखे और उनमें शिकायत को वो भलीभांति देख सकता था, कम से कम महसूस कर सकता था।
उसे याद आया कि कलेक्टर बनने का संदेश लिए हुए एक ऐसा ही पत्र जब उसने उन बूढ़े माँ, बाप को दिखाया था जो अपने विशिष्ट प्रयाण की प्रतीक्षा में थे, तो उनके चेहरे पर वैसी ही रौनक लौट आयी थी जैसी उनके युवावस्था में उस पुत्र के जन्म के समय हुई थी। हालांकि इन खुशियों के साथ वो बहुत दिन तक जीवित नही रहे पर उन चंद क्षणों में ही उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन का सुख भोग लिया हो ऐसा प्रतीत हुआ था।
कुछ ऐसे ही चमत्कार की उम्मीद वो उस मां और पत्नी के लिए भी करता था। और उसे लगता था कि कलेक्टर बनने का संदेश वह खुद आकर उन्हें सुनाएगा और उस जीर्ण और कपटविहीन चेहरे तथा झुर्रियों के बीच उस चमक को देख सकेगा जिसे देखे हुए उसे मुद्दत हो गयी थी।
इन सब बातों के बीच वह उस गुमनाम पत्र के बारे में भूल ही गया।
जब वह गाँव से लौटा तो संध्या हो चली थी, सूर्य अस्ताचलगामी हो गए थे।
ठंड बढ़ चली थी , उसने अपने झोले से शाल निकाल कर ओढ़ लिया। हल्की हल्की धुंध छाने लगी थी। जब वह उस सरकारी नलकूप से गुजरा तो बाबा जा चुके थे।
उबड़ खाबड़ रास्तों से चलता हुआ वो चौड़ी सड़क तक आ गया। और फिर अपने घर की तरफ मुड़ गया।
थकान बहुत ज्यादा हो गयी थी। उसके कच्चे घर की खिड़की टूटी हुई थी जिससे ठंडी हवा बराबर उसके बिस्तर तक आ जाती थी।
वो एक कंबल और शाल के साथ ही रात गुजारने को मजबूर था। सोचा कि कल अगर समय मिला तो आज मनीआर्डर की मिली हुई बख़्शीश का एक ऊनी कपड़ा खरीदूंगा। जीवन के इन्ही संघर्षों के उधेड़बुन में पड़े हुए उसे नींद आ गयी।
दूसरे दिन जब वह डाकखाने पहुँचा तो उसने आयी हुई चिट्ठियों पर लिखे हुए नाम पढ़ने शुरू किए। वह आश्चर्य से देखता रहा जब उसने वो पत्र देखा जिस पर उस बुढ़िया माँ के घर का पता लिखा हुआ था ।
तुरन्त ही सारे पत्र उठाकर वो गाँव की तरफ भागा। आज उसकी साईकल सीधा उस बुढ़िया मां के घर के सामने आकर रुकी। उसने देखा बूढ़ी मां बदली वाली हल्की धूप में बैठी , धान के पुवाल का गद्दा बना रही थी।
आशीष की माँ के पास पहुंच कर रग्घू बोला
अम्मा तोहरो नाम से चिट्ठी आय बा,कहा तो पढ़ के सुनाई!
हां तो सुना न! हमे कहाँ कुछ पता चलता है उसमें।
रग्घू ने पत्र पढ़ना शुरू किया। चिट्ठी पूरी होते होते रग्घू और बूढ़ी माँ दोनो की आंखे भीग चुकी थीं। आशीष कलेक्टर बन गया था। 7 दिन बाद घर आने की सूचना पत्र में लिख कर भिजवाया था उसने।
आशीष की बढ़ी मां की चमकती आंखे और भाव विभोर चेहरा देख कर काफी देर तक रग्घू कुछ सोचता रहा , फिर बोला
हम कहते रहे न अम्मा की बेटवा एक दिन कलेक्टर जरूर बने।
काली चौरा पर लड्डू चढ़ाऊ तो हमे भूल न जाऊ प्रसाद दे का।
बुढ़िया कुछ बोल नहीं पाई, खुशी के आंसुओं से उसका गला रूंध गया था ।
अचानक रग्घू को जैसे बिजली लगी हो, वो झटककर उठा और अपनी साईकल की तरफ दौड़ा।
गांव के हरे रास्तों से सीधा अपने घर की तरफ ।
जैसे ही वह घर पहुँचा, उसने तुरंत ही वो गुमनाम पत्र ढूंढा जो उसके पते पर आया था ,उसके नाम से।
दूसरे दिन सुबह ... वो डाकिया रग्घू डाकखाने नहीं पहुँचा। पहुंची एक खबर... कि रग्घू को मोक्ष मिल गया है।
उस निर्जीव रग्घू के पास खुला हुआ पड़ा था वह पत्र जिसमे लिखा था.........
#क्रमशः
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अभिषेक त्रिपाठी

Saturday 5 May 2018

||अगस्त की सुबह और तुम ||

||अगस्त की सुबह और तुम ||
(काल्पनिक, किसी जीवन से सम्बन्ध एक सयोंग )
अगस्त की सुबह। जगा तो 10 बज रहे थे। होस्टल के कमरे की खिड़की से झांककर बाहर देखा तो मूसलाधार बारिश हो रही थी।
चादर हटाया और पंखे को बंद करके कमरे से बाहर आ गया । बालकनी में खड़े होकर होस्टल के मैदान में तेजी से बरसती बूंदों को देख ही रहा था अचानक से छज्जे से टपकती बूंदों के सर पर गिरने से तंद्रा टूटी।
हां, अगस्त ही तो था न पिछले साल। पीछे खड़ी थी वो |
अरे! तुम ?
अगस्त ही तो था न पिछले साल |
हाँ पर तुम अचानक कैसे ? वो भी यहां ? मुझे बस अगस्त ही नहीं सब कुछ याद है|
याद है सुबह 9 के बाद जगने वाले आलसी को तुमने 7 बजे ही फ़ोन किया था और मीठी आवाज़ में कहा था
'Morning walk पर चलें?'
और 10 मिनट के अंदर मैं तुम्हारे साथ था। बादलों से घिरा हुआ पूरा आसमान जैसे हम दोनो की उस मुलाकात को छुपाने के लिए चादर बन गया था। एग्रीकल्चर फार्म में पहुचहते ही तुमने हाथ झटक कर कैसे मेरा हाथ अपने हाथ मे ले लिया था और फिर तुम्हारे चेहरे पर वो खुशी देखकर मैंने बस ये सोच लिया कि इस मुस्कुराहट को कभी जाने नही दूंगा तुम्हारे होठो से।
और फिर शुरू हुई जोरदार बारिश से छुपने के लिए कैसे हम उस बरगद के बड़े से दरख़्त के नीचे खड़े हो गए थे, उस बारिश ने हमे कितने नजदीक ला दिया था।
तुमने तुरंत ही बाहें फैलाकर मुझे आलिंगन के लिए आमंत्रित किया और मेरे सकुचाने पर तुमने खुद ही कस लिया था खुद में मुझे।
तब तक के जीवन का पहला चुम्बन था वो, जिसकी गर्मी आज भी मेरे होंठो से ग़ज़लों के साथ निकल आती है। उस सुबह बारिश में मैं पूरा भीग गया था कुछ बरसते पानी से और कुछ बरसते प्यार से |
पहली मुलाकात भी हमारी कुछ अजीब ही रही। मैं मधुबन गोष्ठी में कवियों को सुनने गया था और तुम अपने best friend को उसके boy friend से मिलाने ले गयी थी। सवाल आजतक जेहन में आता है तुम्हारा वहां क्या काम था। हँसी भी आती है तुम्हारी उस अपरिपक्वता पर।
मैं हसरत मोहानी को गुनगुनाते हुए उधर से ग़ुज़र ही रहा था कि तुम्हारी चंचल आंखों ने मेरे स्थिर बुद्धि और हृदय पर आघात कर दिया। जैसे जड़ हो गया था मैं। फिर मुलाकातें होती रहीं और हम एक दूसरे को और भी अच्छे से जानते रहे |
मैं ग़ुलाम अली को गुनगुनाता तो तुम मुझे जॉन कीट्स का प्रेम सिखाती । मैं सरकारी स्कूल से भागने के किस्से बताता तो तुम कान्वेंट स्कूल की कहानियां सुनाती। मैं हीगल दर्शन, वेदांत दर्शन, फ्रांस, और रूस की क्रांति समझाता तो तुम मुझे बस सुनती रहती। तुम्हारा वो सवाल की तुम हमेशा दर्शन की book लेकर चलते हो, तुम्हे दर्शन से इतना प्यार क्यों है।
उत्तर आज भी मेरे पास नही है पर वो दर्शन भी तुम्हे समझने के लिए पर्याप्त नही थे ।........
तभी अचानक लगा जैसे किसी ने झकझोर दिया हो। जैसे दरख़्त टूटने से आसमान खाली हो जाता है, और मिट जाते हैं परिंदों के वो आशियाने, बरसते पानी के साथ बह जातीं है सारी मेहनत और शायद आने वाले बच्चे भी ।
कुछ ऐसा ही खालीपन महसूस हुआ लगा कि अंदर कुछ टूट रहा है। इसी ख्वाब में कब 12 बज गए थे पता ही नही चला।
बारिश कम हो गयी थी छोटी छोटी बूंदे आसमान से नाचती हुई आ रही थी। यादों की गर्मी इतनी हो गयी थी कि अब खड़ा नही रह सकता था।
BHU की सड़कों पर घूमने निकल गया एकदम तन्हा। सर पर गिरती बूंदे और ठंडी हवा के थपेड़ों से यादों का तूफान उठ खड़ा हुआ था।
रास्ते में कुछ एक बाइक और छात्रों का गुट ही दिखा, सड़के खाली थी शायद उसकी वजह थी।
कहतें हैं प्रेम के कवि के लिए सावन अमृत होता है। जहाँ वो अपनी सारी भावनाएं उड़ेल सकता है वो भी पूर्णता के साथ।
तन्हाई और यादों के बीच जद्दोजहत करता हुआ मैं विरला मंदिर पहुँच चुका था। यही वो जगह थी जहाँ हम सबसे ज्यादा मिले थे , उसके बाद तो घाट प्रमुख स्थान हुआ करता था |
आज भी जब मैं खुद को तन्हाई के पाले में रखकर देखता हूँ तो जैसे तुम कहती हो कि आओ न इधर , मैं न सही मेरी यादें तो है।
और जब तुम्हारी यादों का तसव्वुर करता हूँ तो उस ओर दिखती है मेरी ही परछाई , जो गंगा की लहरों के साथ बह जाना चाहती है और बनारस उसे जकड़ लेता है, उस सुबह की तरह...
अजब आये खुशी देने अजाबत नाम कर डाली,
मेरी तन्हाई भी तन्हा पड़ी रोती है रातो में।
...atr
क्रमशः ...

Abhishek Tripathi

|| यात्रा और नदियां ||

वर्षों से ये विचार कर रहा था कि बनारस में रहकर सबसे ज्यादा किसी से कुछ मिला तो क्या मिला! जवाब तो आज भी स्पष्ट नहीं है पर ये जरूर लगता है की गंगा ने बनारस को बहुत कुछ दिया और फिर बनारस ने हमें | हालाँकि बनारस की आत्मा में ही कबीरी है, मन में तुलसी हैं सद्भावना में रविदास हैं और शायद उन सबसे कहीं ज्यादा हर कण में महादेव और गंगा हैं |
दोआब क्षेत्र में जन्म होने के कारण नदियों से तो शुरुआत से ही जुड़ाव रहा | तमसा नदी जिसे टोन्स भी बोलते हैं (कारण ज्ञात नहीं ) के पास बचपन बीता और फिर सरयू का साथ रहा | बनारस में रहते रहते तो गंगा ने अपना बना लिया | जैसे जैसे नदियों का इतिहास और भौगोलिक जानकारी आगे बढ़ी तो ऐसा लगने लगा है कि यही सदानीरा अब बुलाने लगीं है |
कालिंदी (यमुना) और गोदावरी दो ऐसी नदियां है जो मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती हैं | वो अलग है की यमुना को मिटा दिया गया है, शायद कुछ वर्षों के बाद असि और वरुणा की तरह गंगा भी मृतप्राय हो जाएँ |
तीसरी नदी जो मुझे देखनी है वो है टोंस (उत्तराखंड और हिमाचल ) और शायद सिंधु भी |
अब जब भी घाट पर जाता हूँ तो हर बार आजतक भारतीय गणराज्य पर शासन करने वाले उन अहंकारी और कपटी नेताओं की सुध आती है जिन्होंने आज तक गंगा और अन्य नदियों के नाम पर लूट मचाई है | समाधि लेने वाली उमा भारती , गंगा के बेटे मोदी , और उनसे पहले के भी सारे लोग!
शायद तुम्हे क्रांति की आहट न सुनाई पड रही हो , लेकिन जल्द ही क्रांति होगी और फिर एक ऐसे युग और व्यवस्था का निर्माण होगा जो कल्पना से भी परे है |'

Abhishek Tripathi

|| मिलन ||

मिलना 3 अक्षरों का शब्द है, मिलते 2 ही लोग हैं तीसरी जो उनकी एकाकार भावनाएं हैं वो तो उनके बीच ही हिलती रहती हैं, उन दोनों के बीच ! फिर शर्म के पहिये पर बैठकर बातों के साथ बहुत दूर निकल जाती है | लौटकर आती है तो मिलने वाले दोनों एक हो गए रहते हैं शर्म का पहिया टूट चुका होता है | असमंजस में भावनाएं फिर से एक नहीं हो पातीं | एकाकार होना सिद्धि है जो लौकिक प्रेम की भावनाओं का स्वभाव नहीं है |
इसलिए उस संसर्ग के बाद लौटते हैं 3 लोग, जिसमे 2 भावनाएं होती है| टूटी हुई! 

Abhishek

|| इतिहास और दुर्ग अर्थात किला ||


काफी शोर शराबे के बीच कुछ दिनों पहले यादृच्छया मैं लालकिले का इतिहास पढ़ रहा था | जिस लालकिले ने शाहजहां के शाही आगमन से लेकर बहादुर शाह जफ़र के निर्वासन को देखा हो | जिसने अंग्रेजों के कैदखाने के रूप में खुद को महसूस किया हो , और जिसने आज़ाद भारत के तिरंगे का स्वागत अपने विशाल वक्ष पर किया हो | कितने सारे इतिहासों को समेटे हुए है लालकिला | ऐसे ही कितने सारे किले हैं जिनका अपना इतिहास है, अपनी कहानी है और अपना जीवन है | पर क्या किलों का ही इतिहास होता है ? नहीं ! इतिहास के भी किले होते हैं| वो किले जो कई शिल्पी इतिहासकारों द्वारा बनाये जाते हैं , वो किले जिनमे हर रोज एक नया निर्माण होता है और शायद वो किले भी, जो ढहा दिए जातें हैं |
इतिहास का अपना एक लालकिला है जिसमे दीवाने आम से लेकर दीवान ए खास तक एक तबियत से बनाए गए हैं | जिसमें कालिदास, ह्वेनसांग, फाह्यान, अबुल फज़ल जैसे कितने सारे इतिहास के शिल्पकारों ने अपने अपने महल बनाएं है| इसी किले में सभ्यताओं की नहर ए बहिश्त बहती है जो चलकर सीधा वर्तमान तक आती है | पर इसी किले में कही कहीं पर खून के छींटे भी दिखते हैं , ये उन उग्र और पक्षपाती शिल्पियों द्वारा किए गए है जिन्हे किले से नहीं बल्कि राजा से मोहब्बत थी |
इस इतिहास के लालकिले में कितने बार महलों को तोडा गया , कितनी बार उन्हें पुनर्जीवित किया गया और कितनी बार उनका स्वरुप ही बदल दिया गया | हमें तो ये भी नहीं पता कि ये किला जैसा आज दिखता है क्या सच में वैसा ही पहले भी था ?
इस नवीनतम प्राचीन किले में प्रवेश करते ही आप खुद को बाहर छोड़ दीजिये और किले की यात्रा पर निकल जाइये जो आपको गुजरे हुए पल से लेकर आज़ाद भारत के नायकों और द्रोहियों से होता हुआ ग़ुलाम भारत और मुग़लिया तथा सल्तनतकाल के महलों से परिचित कराते हुए पृथ्वीराज चौहान की शौर्यगाथा के बागों के किनारे से विक्रमादित्य
के आदर्श साम्राज्य के विशेष शीश महल से निकलता हुआ चाणक्य की चोटी के वटवृक्ष तक लेकर जायेगा और शायद उसके भी परे सिद्धार्थ के बुद्ध बनने की पगडण्डी पर भी | क्यूंकि इतिहास तो फिर इतिहास है न !
जब इस यात्रा से आप वापस आएं तो संभव है कि आपका वो क्षण जिसमे आपने प्रवेश लिया था वो अब इतिहास के इस किले का ही एक हिस्सा हो| यह बहुत विशाल है, भव्य और सुन्दर है | साथ साथ यह टूटा हुआ, टपकता हुआ , खूनों से रंगी दीवारों वाला और अपने राजाओं के मृत्यु पर कभी शोक मनाता हुआ और कभी मंगल गीत जाता हुआ मिल जायेगा | यह मृत नहीं है , ये जीवित है जो हर क्षण बढ़ रहा है , आयाम में और शायद दिलों में भी |
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अभिषेक त्रिपाठी

|| मेघ, मेघदूत और कालिदास ||


गाँव में बैठक में बैठकर सावन में हो रही बरसात और बाहर दिख रहे नीम और आंवले के पेड़ से सरसराकर नीचे आती हुई बूंदे, काले घने बादल , बारिश में दौड़ते भीगते बच्चे, चांदी सा चमकता क्षितिज और साथ में महाकवि कालिदास की अमर कृति मेघदूतम हो तो फिर उस महाप्राण को बार बार क्रमशः नमन करने का मन करता है जिसकी कल्पना मात्र ही इतनी व्यापक और वास्तविक है कि ज्येष्ठ में भी आषाढ़ का वातावरण प्रकट हो जाता है | वियोग और प्रकृति का समन्वय इतनी धीरता के साथ और जिस यथार्थ स्वरुप में किया गया है वो बस अनुभव किया जा सकता है, उसको पढ़कर खुश हुआ जा सकता है, पर शायद व्याख्या करना आसान नहीं है |
जब स्नातक के दिनों में मैंने पहली बार मेघदूतम पढ़ा था तो यक्ष का मेघ से पूर्वमेघ में वह संवाद जैसे उतरता गया था, यक्ष के बताये हुए मार्गों और उसके वर्णन ने इस कदर छाप छोड़ी की वो मार्ग मुझे याद हो गए | उत्तरमेघ में जब अपना विरह बताते हुए यक्ष अपना सन्देश देता है तो लगता है यही प्रेम का सबसे वास्तविक स्वरुप है| अंत में जब यक्ष मेघ से कहते हैं कि
एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्तिनो मे
सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या ।
इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्रीर्मा
भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ||
यानि कि हे मेघ, मित्रता के कारण, अथवा मैं वियोगी हूँ इससे मेरे ऊपर दया करके यह अनुचित अनुरोध भी मानते हुए मेरा कार्य पूरा कर देना। फिर वर्षा ऋतु की शोभा लिये हुए मनचाहे स्थानों में विचरना। हे जलधर, तुम्हें अपनी प्रियतमा विद्युत् से क्षण-भर के लिए भी मेरे जैसा वियोग न सहना पड़े।
फिर पता चलता है कि भावनात्मक और परहित विमर्श में हमारा साहित्य कितना समृद्ध था |
श्रृंगार, रस , अलंकार, ऋतु वर्णन , उपमाएं, आदर्शवाद, संगीत और साहित्य और ऐसे न जाने कितने विषय हैं जिन पर महाकवि को महाकवि से ऊपर प्रतिष्ठित करने का मन होता है |
प्रणाम महामानव |
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अभिषेक त्रिपाठी
PS: अपेक्षा है कि संस्कृतविद मेरी किसी त्रुटि और धृष्टता के लिए क्षमा करेंगें |

Wednesday 7 February 2018

वर्ग और समाज

आज Department  में सीढ़ियों से उतरते हुए एक सज्जन को देखा जो सीढ़ियां चढ़ रहे थे, हाथ में कुछ काग़ज़ थे और लम्बे शरीर पर कोट था | उनको देखकर मैं रुक गया और उनको रास्ता दे  दिया जिससे की वो बिना किसी बाधा  के आगे जा सकें | मैं उसके बाद 1-2 सीढ़ियां ही उतरा रहा होऊंगा की सामने से माली दिखा जो ऊपर के ऑफिस में जाने के लिए सीढिया चढ़ रहा था | उसे देखकर मन में आया अरे इसको देखो मैं नीचे उतर रहा हूँ और ये चढ़ता चला आ रहा है | और फिर बिना रुके मैं सीधा उतरता चला आया |

ये तो बस  एक दृष्टान्त भर है| और इन सब का मतलब बस ये बताना है की वर्ग आधारित समाज की अवधारणा कितने गहरे तक हमारे दिमाग में आ चुकी है | कई पीढ़ियां लग जाएँ कोई बात नहीं लेकिन ये प्रक्रिया कि एक माली किसी कोट वाले से कम दर्जे का नहीं है , सतत चलती रहनी चाहिए और एक ऐसा वर्गमुक्त समाज बने जहाँ कोट और माली दोनों को बराबर देखा जाये, बराबर समझा जाये और किसी क्लास के आधार पर  किसी से भेदभाव न हो | कार्य अलग हो , कर्त्तव्य अलग हो लेकिन वर्ग के आधार पर न बांटा जाये |

सभी के जीवन का बराबर मूल्य है ,(यहां मूल्य का तात्पर्य मुद्रा नहीं है ) अगर आप एक कोट वाले के लिए रास्ता छोड़ रहे हैं तो एक माली के लिए भी छोड़ें |

Abhishek Tripathi

|| गुमनाम पत्र ||

|| गुमनाम पत्र || (स्नातक के समय लिखा हुआ अपूर्ण , परित्यक्त ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास का एक अंश ) -अभिषेक त्रिपाठी माघ महीने के दो...