Sunday 18 December 2016

प्रेम का नवगीत

दिल हमारा गा रहा है प्रेम का नवगीत फिर से ,
आँख से झर झर निकलते अश्रु  का संगीत फिर से.

ज्यों  की पंकज  फूलने  से पूर्व  खुद को धो रहा हो ,
या कि किसलय गर्भ के पश्चात जी भर रो रहा हो.
वेदना  के चरम पर आनंद का नवगीत फिर से,
आँख से झर झर निकलते अश्रु  का संगीत फिर से.

ज्येष्ठ की तपती दुपहरी में की ज्यों बरसात होगी ,
या की सावन के अमावस में चमकती  रात होगी ,
गुनगुनायेंगे सितारे, चांदनी गायेगी मेरे गीत फिर से ,
आँख से झर झर निकलते अश्रु  का संगीत फिर से.
दिल हमारा गा रहा है प्रेम का नवगीत फिर से|
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Thursday 13 October 2016

उजाले की ओर

हे प्रणय रस प्रेम  के कवि, हे मधुर संगीत के स्वर ,
इस अँधेरे गुप्त स्वर से मैं अमर संसार लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

नेह लिख दूँ द्वेष के ऊपर विजय अपरिहार्य  लिख दूँ ,
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

वीरता का शस्त्र थामे , कायरों की भीड़ पर मैं ,
इस अशासित द्वन्द पर , लेख से प्रहार लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

जब घृणा हो विकट युग में , दिल निचोड़े जा रहे हों ,
खींचकर सब विष ह्रदय से , प्रेम का व्यापर लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

सब थके हों आलसी हो, भोर की न हो खबर जब ,
खींच के एड़ी धरा पर फिर से मैं रफ़्तार लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

भय, निराशा , क्रोध से बीमार जब लगने लगे,
वीरता , उम्मीद , चुम्बन का अटल उपचार लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

हे प्रणय रस प्रेम  के कवि, हे मधुर संगीत के स्वर ,
इस अँधेरे गुप्त स्वर से मैं अमर संसार लिख दूँ|
दो मुझे ऐसी कलम , मैं शत्रु की तलवार लिख दूँ|

प्रेम की खोज

मैं प्रेम ढूंढता रहा कठोर सी जुबान में ,
पत्थरों के शोर में और दुश्मनो के गावँ में|

जहाँ न कोई प्रीति है न है ख्याल भाव का ,
न भावना की छाव है न सत्य आसमान सा,
बहुत बढे चले गए हमें तो कुछ मिला नहीं ,
 भटक भटक के रह गए बस्ती ए बीरान में |
पत्थरों के शोर में और दुश्मनो के गावँ में|

झूठ का कराल रूप देखकर सिहर उठा ,
प्रधान भाव शून्य हो मैं रात को क्यों रो पड़ा,
जला दिया "दिया" ख़ुदा के नाम लेखनी उठी,
 फिर लिखा जुबान में, शिशिर लगे मक़ान में|
पत्थरों के शोर में और दुश्मनो के गावँ में|

Friday 23 September 2016

वासंती हवा

मेरे दिल में है उदासी
आ भी जाओ तुम हवा सी .

भोर के किरणों के जैसी ,ओस को मोती बनाने.
रात को सोये हुए फूलों में फिर से खुश्बू लाने.
तुम मलय के घर से निकलो , हर सुबह बन जाये काशी.
मेरे दिल में है उदासी
आ भी जाओ तुम हवा सी 

बाग़ के पत्ते गिरे सब , जा चुका है कब का पतझड़ .
फिर भी अब तक नवल किसलय न ही फूलों की है झांकी .

रात का सोया पथिक अब भोर में अलसा रहा है ,
क्षुब्ध होके फिर प्रकृति से आज सोने जा रहा है .
कोयलों की कूक को क्यों अब सुनाने में समय है ,
सोने वाले उस कवि को गीत गाने में समय है .
आज पनघट पे खड़ी फिर गोपिकाएं क्यों है प्यासी |
मेरे दिल में है उदासी
आ भी जाओ तुम हवा सी |

आज कवि की लेखनी  कुछ यूँ चलाई जा रही है ,
फिर विचारों में समय की स्याही लगाई जा रही है,
फिर नया मधुमास आया , लेके नव विश्वास आया ,
आ गए हैं फिर से पत्ते , फूल भी लहरा रहे हैं ,
फिर मधुर वासंती स्वर में गीत गाये जा रहे हैं ,
मेरे मन में प्रेरणा है , दीप्ति हैं अब ज़रा सी ,

आ गयी जो तुम हवा सी , मिट गयी सारी उदासी .

|| गुमनाम पत्र ||

|| गुमनाम पत्र || (स्नातक के समय लिखा हुआ अपूर्ण , परित्यक्त ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास का एक अंश ) -अभिषेक त्रिपाठी माघ महीने के दो...