Thursday 28 September 2017

गरीबों की रोटी

बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।

फ़िराक़ गोरखपुरी की ये ग़ज़ल ज़िंदगी और महबूबा के विषय में तो ठीक है , क्योंकि वहां  पर काफी कुछ काल्पनिक भी होता है , परन्तु असल जिंदगी में बहुत दूर से पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है, नहीं ?
काशी  हिन्दू विश्वविद्यालय के विषय में आजकल कुछ ऐसा ही हो रहा है | लोग बहुत दूर दूर से जान , पहचान जा रहे हैं| और बस आहट ही क्यों , आहट की फ्रीक्वेंसी , एम्पलीट्यूड, पिच सब कुछ जान ले रहे हैं | यकीन मानिये उनकी मापन क्षमता इतनी विशुद्ध है कि लुटियंस दिल्ली  से  दक्कन के पठार   पर होकर   भी उन्हें  एकदम  सटीक  ज्ञान  है की उनकी जिंदगी (BHU) की आहट में कौन  कौन  सी  आवाज़े हैं| पिछले  एक  सप्ताह  से लगातार  इतने  सारे   आर्टिकल  लिख  दिए  गए , और लिखने वाले लोगो में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने या तो BHU को कभी देखा नहीं है या फिर वो आज तक इसके अस्तित्व को मानते ही नहीं थे क्यूंकि उनके लिए जो दिल्ली में है वही विश्वविद्यालय है यहाँ तो बस खिचड़ी पकाई जाती है |  ये वो लोग हैं जिनको न तो BHU के स्थापना का उद्देश्य पता है और न ही इसके बनने का इतिहास और प्रक्रिया | ये उस विचारधारा से आते है जिन्होंने , गंगा पुत्र जिनका जीवन भी वैसा ही निर्मल था , निश्वार्थ सेवा में लगे रहने वाले, मालवीय जी की  प्रतिमा पर कालिख पोतने का कुप्रयास किया |  कहते हैं की महामना द्वितीय गोल मेज़ सम्मलेन में खुद के खर्चे से गए थे , अब उनको ऐसा क्यों करना पड़ा ये न तो मुझे ज्ञात है न ही किसी से पता चल पाया |
   
BHU के तत्कालीन कुलपति की नियुक्ति के विरोध में मैं शुरुआत से ही रहा क्योंकि जिस परंपरा में सर सुंदरलाल , महामना, राधाकृष्णन और आचार्य नरेंद्र देव आते है उसमे त्रिपाठी जी कही से फिट नहीं हो सकते थे और न ही हो पाए | मानव संसाधन मंत्रालय ने पता नहीं किस बात की खुन्नस निकाली  है हमारी  यूनिवर्सिटी से, ऐसी नियुक्ति करके!

अगर आपको इस पोस्ट के शीर्षक और अन्तर्निहित सामग्री में कोई सम्बन्ध न दिख रहा हो तो थोड़ा सो भी लिया कीजिये.. कभी कभी आहट  सुनते सुनते दिमाग सो जाता है और शरीर जगता रहता है | अब इश्क़ में तो कुछ भी हो सकता है गुरु !

महादेव

Saturday 1 April 2017

तुम्हारे हिज़्र में

दो दिन की मुलाकात थी, आधी अधूरी बात थी,
वो छोड़ के चला गया , जिंदगी उदास थी|
एक रात मैं सोया हुआ, ख्वाब में वो आ गया ,
सोये हुए दर्द को फिर से जगा गया |

पर  मीर वक़्त का क्या कहिये, हर चीज़ को चकमा देती है,
हर शख्स ग़ुलामी करता है, हर चोट को फिर भर देती है|

था मेरा हाल बुरा उस दिन , जिस दिन वो छोड़ के भागा था,
पर अब देखो मैं हँसता हूँ , पहले मैं बड़ा अभागा था|
 ज़िन्दगी की यही कहानी है, यह  दुनिया ही दीवानी है,
कोई न किसी का दोस्त यहां , हर रिश्ता पर रूमानी है|
हर वस्ल  में खुश्बू होती है , हर हिज़्र में आंसू  बहते है|
न कोई हकीकतगोई है , सपनों का , ख्वाबों का धोखा|

उस ख्वाबों में जीने का अपना ही एक एहसास है,
पहले वो जितना पास था , अब भी वो उतना पास है|

...atr

Wednesday 1 March 2017

कभी जब शाम हो जाये , सुबह के गीत गया कर.

कभी जब शाम हो जाये , सुबह के गीत गया कर.
ये रातें भ्रमित करती है, न इस चक्कर में आया कर.

कभी सांसों में अटकी हो किसी के प्यार की खुश्बू,
फ़िज़ा महकाना चाहे तो  मीर को गुनगुनाया कर.

जिंदगी प्रेम है, उत्साह  है , आनंद पूरा है,
सलीके से जियें , हर पल का बस उत्सव मनाया कर.

ग़ज़ब की सादगी थी मीर उसके हिज़्र में देखो,
वो ख्वाबों में चली आयी ये कहने , "मुस्कराया  कर"

...atr

Monday 20 February 2017

मुक्तक

सफेदी ओढ़ कर यूँ चाँद तंग मुझको न कर तू ,
कफ़न जिस दिन भी ओढूंगा , ज़माना सारा रोयेगा.
...atr

तेरा घर

मुझे कुछ भी कहीं पर याद आये तो तेरा घर हो,
ग़र कहीं पर जान जाये तो तेरा घर हो.
नियति मासूक से मिलने का मौका भी नहीं  देगी,
ग़र कहीं दीदार हो जाये  तेरा घर हो.
बदन पर सिलवटें दिखने लगी है  उम्र बाक़ी है,
कहीं ग़र रूह भी मुरझाना चाहे तो तेरा घर हो.
विदाई के समय रोये थे हम दोनों गले मिल कर ,
वो आंसू  आँख से गिर जाना चाहें तो तेरा घर हो.
मुकद्दर ने लिया है  छीन मुझसे दोस्ती का सुख,
कभी जब दुश्मनी आज़माना चाहे तो तेरा घर हो.
मुझे कुछ भी कहीं पर याद आये तो तेरा घर हो.
...atr

|| गुमनाम पत्र ||

|| गुमनाम पत्र || (स्नातक के समय लिखा हुआ अपूर्ण , परित्यक्त ग्रामीण अंचल पर आधारित उपन्यास का एक अंश ) -अभिषेक त्रिपाठी माघ महीने के दो...