बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।
फ़िराक़ गोरखपुरी की ये ग़ज़ल ज़िंदगी और महबूबा के विषय में तो ठीक है , क्योंकि वहां पर काफी कुछ काल्पनिक भी होता है , परन्तु असल जिंदगी में बहुत दूर से पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है, नहीं ?
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विषय में आजकल कुछ ऐसा ही हो रहा है | लोग बहुत दूर दूर से जान , पहचान जा रहे हैं| और बस आहट ही क्यों , आहट की फ्रीक्वेंसी , एम्पलीट्यूड, पिच सब कुछ जान ले रहे हैं | यकीन मानिये उनकी मापन क्षमता इतनी विशुद्ध है कि लुटियंस दिल्ली से दक्कन के पठार पर होकर भी उन्हें एकदम सटीक ज्ञान है की उनकी जिंदगी (BHU) की आहट में कौन कौन सी आवाज़े हैं| पिछले एक सप्ताह से लगातार इतने सारे आर्टिकल लिख दिए गए , और लिखने वाले लोगो में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने या तो BHU को कभी देखा नहीं है या फिर वो आज तक इसके अस्तित्व को मानते ही नहीं थे क्यूंकि उनके लिए जो दिल्ली में है वही विश्वविद्यालय है यहाँ तो बस खिचड़ी पकाई जाती है | ये वो लोग हैं जिनको न तो BHU के स्थापना का उद्देश्य पता है और न ही इसके बनने का इतिहास और प्रक्रिया | ये उस विचारधारा से आते है जिन्होंने , गंगा पुत्र जिनका जीवन भी वैसा ही निर्मल था , निश्वार्थ सेवा में लगे रहने वाले, मालवीय जी की प्रतिमा पर कालिख पोतने का कुप्रयास किया | कहते हैं की महामना द्वितीय गोल मेज़ सम्मलेन में खुद के खर्चे से गए थे , अब उनको ऐसा क्यों करना पड़ा ये न तो मुझे ज्ञात है न ही किसी से पता चल पाया |
BHU के तत्कालीन कुलपति की नियुक्ति के विरोध में मैं शुरुआत से ही रहा क्योंकि जिस परंपरा में सर सुंदरलाल , महामना, राधाकृष्णन और आचार्य नरेंद्र देव आते है उसमे त्रिपाठी जी कही से फिट नहीं हो सकते थे और न ही हो पाए | मानव संसाधन मंत्रालय ने पता नहीं किस बात की खुन्नस निकाली है हमारी यूनिवर्सिटी से, ऐसी नियुक्ति करके!
अगर आपको इस पोस्ट के शीर्षक और अन्तर्निहित सामग्री में कोई सम्बन्ध न दिख रहा हो तो थोड़ा सो भी लिया कीजिये.. कभी कभी आहट सुनते सुनते दिमाग सो जाता है और शरीर जगता रहता है | अब इश्क़ में तो कुछ भी हो सकता है गुरु !
महादेव
तुझे ए ज़िन्दगी, हम दूर से पहचान लेते हैं।
फ़िराक़ गोरखपुरी की ये ग़ज़ल ज़िंदगी और महबूबा के विषय में तो ठीक है , क्योंकि वहां पर काफी कुछ काल्पनिक भी होता है , परन्तु असल जिंदगी में बहुत दूर से पहचानना थोड़ा मुश्किल होता है, नहीं ?
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विषय में आजकल कुछ ऐसा ही हो रहा है | लोग बहुत दूर दूर से जान , पहचान जा रहे हैं| और बस आहट ही क्यों , आहट की फ्रीक्वेंसी , एम्पलीट्यूड, पिच सब कुछ जान ले रहे हैं | यकीन मानिये उनकी मापन क्षमता इतनी विशुद्ध है कि लुटियंस दिल्ली से दक्कन के पठार पर होकर भी उन्हें एकदम सटीक ज्ञान है की उनकी जिंदगी (BHU) की आहट में कौन कौन सी आवाज़े हैं| पिछले एक सप्ताह से लगातार इतने सारे आर्टिकल लिख दिए गए , और लिखने वाले लोगो में कुछ ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने या तो BHU को कभी देखा नहीं है या फिर वो आज तक इसके अस्तित्व को मानते ही नहीं थे क्यूंकि उनके लिए जो दिल्ली में है वही विश्वविद्यालय है यहाँ तो बस खिचड़ी पकाई जाती है | ये वो लोग हैं जिनको न तो BHU के स्थापना का उद्देश्य पता है और न ही इसके बनने का इतिहास और प्रक्रिया | ये उस विचारधारा से आते है जिन्होंने , गंगा पुत्र जिनका जीवन भी वैसा ही निर्मल था , निश्वार्थ सेवा में लगे रहने वाले, मालवीय जी की प्रतिमा पर कालिख पोतने का कुप्रयास किया | कहते हैं की महामना द्वितीय गोल मेज़ सम्मलेन में खुद के खर्चे से गए थे , अब उनको ऐसा क्यों करना पड़ा ये न तो मुझे ज्ञात है न ही किसी से पता चल पाया |
BHU के तत्कालीन कुलपति की नियुक्ति के विरोध में मैं शुरुआत से ही रहा क्योंकि जिस परंपरा में सर सुंदरलाल , महामना, राधाकृष्णन और आचार्य नरेंद्र देव आते है उसमे त्रिपाठी जी कही से फिट नहीं हो सकते थे और न ही हो पाए | मानव संसाधन मंत्रालय ने पता नहीं किस बात की खुन्नस निकाली है हमारी यूनिवर्सिटी से, ऐसी नियुक्ति करके!
अगर आपको इस पोस्ट के शीर्षक और अन्तर्निहित सामग्री में कोई सम्बन्ध न दिख रहा हो तो थोड़ा सो भी लिया कीजिये.. कभी कभी आहट सुनते सुनते दिमाग सो जाता है और शरीर जगता रहता है | अब इश्क़ में तो कुछ भी हो सकता है गुरु !
महादेव