गाँव में बैठक में बैठकर सावन में हो रही बरसात और बाहर दिख रहे नीम और आंवले के पेड़ से सरसराकर नीचे आती हुई बूंदे, काले घने बादल , बारिश में दौड़ते भीगते बच्चे, चांदी सा चमकता क्षितिज और साथ में महाकवि कालिदास की अमर कृति मेघदूतम हो तो फिर उस महाप्राण को बार बार क्रमशः नमन करने का मन करता है जिसकी कल्पना मात्र ही इतनी व्यापक और वास्तविक है कि ज्येष्ठ में भी आषाढ़ का वातावरण प्रकट हो जाता है | वियोग और प्रकृति का समन्वय इतनी धीरता के साथ और जिस यथार्थ स्वरुप में किया गया है वो बस अनुभव किया जा सकता है, उसको पढ़कर खुश हुआ जा सकता है, पर शायद व्याख्या करना आसान नहीं है |
जब स्नातक के दिनों में मैंने पहली बार मेघदूतम पढ़ा था तो यक्ष का मेघ से पूर्वमेघ में वह संवाद जैसे उतरता गया था, यक्ष के बताये हुए मार्गों और उसके वर्णन ने इस कदर छाप छोड़ी की वो मार्ग मुझे याद हो गए | उत्तरमेघ में जब अपना विरह बताते हुए यक्ष अपना सन्देश देता है तो लगता है यही प्रेम का सबसे वास्तविक स्वरुप है| अंत में जब यक्ष मेघ से कहते हैं कि
जब स्नातक के दिनों में मैंने पहली बार मेघदूतम पढ़ा था तो यक्ष का मेघ से पूर्वमेघ में वह संवाद जैसे उतरता गया था, यक्ष के बताये हुए मार्गों और उसके वर्णन ने इस कदर छाप छोड़ी की वो मार्ग मुझे याद हो गए | उत्तरमेघ में जब अपना विरह बताते हुए यक्ष अपना सन्देश देता है तो लगता है यही प्रेम का सबसे वास्तविक स्वरुप है| अंत में जब यक्ष मेघ से कहते हैं कि
एतत्कृत्वा प्रियमनुचितप्रार्थनावर्तिनो मे
सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या ।
इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्रीर्मा
भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ||
सौहार्दाद्वा विधुर इति वा मय्यनुक्रोशबुद्ध्या ।
इष्टान्देशाञ्जलद विचर प्रावृषा संभृतश्रीर्मा
भूदेवं क्षणमपि च ते विद्युता विप्रयोगः ||
यानि कि हे मेघ, मित्रता के कारण, अथवा मैं वियोगी हूँ इससे मेरे ऊपर दया करके यह अनुचित अनुरोध भी मानते हुए मेरा कार्य पूरा कर देना। फिर वर्षा ऋतु की शोभा लिये हुए मनचाहे स्थानों में विचरना। हे जलधर, तुम्हें अपनी प्रियतमा विद्युत् से क्षण-भर के लिए भी मेरे जैसा वियोग न सहना पड़े।
फिर पता चलता है कि भावनात्मक और परहित विमर्श में हमारा साहित्य कितना समृद्ध था |
श्रृंगार, रस , अलंकार, ऋतु वर्णन , उपमाएं, आदर्शवाद, संगीत और साहित्य और ऐसे न जाने कितने विषय हैं जिन पर महाकवि को महाकवि से ऊपर प्रतिष्ठित करने का मन होता है |
फिर पता चलता है कि भावनात्मक और परहित विमर्श में हमारा साहित्य कितना समृद्ध था |
श्रृंगार, रस , अलंकार, ऋतु वर्णन , उपमाएं, आदर्शवाद, संगीत और साहित्य और ऐसे न जाने कितने विषय हैं जिन पर महाकवि को महाकवि से ऊपर प्रतिष्ठित करने का मन होता है |
प्रणाम महामानव |
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अभिषेक त्रिपाठी
अभिषेक त्रिपाठी
PS: अपेक्षा है कि संस्कृतविद मेरी किसी त्रुटि और धृष्टता के लिए क्षमा करेंगें |
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